रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदांकितं चंदनम् ।
जातीचंपकविल्बपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृद्यताम्। ।
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः।
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधानम् । ।
(शिवमानसपूजा के ये दो श्लोक १५/११/०३ एवं १५/११/०४ को विद्यालय दिवस के अवसर पर मंगलाचरण के रूप में प्रस्तुत किए गए थे।
यह ब्लॉग नेतरहाट विद्यालय की यादों को समर्पित है. नेतरहाट को हम हाटियन न जाने कितने ही विविध रूपों में देखते आते हैं और वो सब कुछ हमारी भावनाओं में सदा प्रवाहित होता रहता है. नेतरहाट में हमने जीवन को जिन खूबसूरत बेहतरीन आयामों के साथ जिया था, उन्हें ही फिर से एक जगह सहेजने का यह लघु प्रयास है. आपके सुझाव यहाँ सादर आमन्त्रित हैं. raghav0435@gmail.com .... awanish413@gmail.com
Sunday, 22 February 2009
Friday, 20 February 2009
रूद्राष्टकं
नमामिशमीशान् निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं .
निजं निर्गुनं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम् .
निराकारमोंकारमूलं तुरियं गिरा ज्ञान गोतितमीशं गिरीशम् .
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोहम् .
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभिरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् .
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा लसद्भालबालेन्दु कन्ठे भुजन्गा .
चलत् कुन्डलम भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकन्ठं दयालम् .
मृगाधीशचर्माम्बरं मुन्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि .
प्रचन्डं प्रकृष्टम प्रगल्भं परेशं अखन्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् .
त्रयः शूल निर्मुलनं शुलपाणिं भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम् .
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि
चिदानन्द संदोहमोहापहारि प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि .
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तिहलोके परे वा नरानम् .
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूतादिवासम् .
न जानामि योगं जपं नैव पूजा नतोअहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् .
ज़रा जन्म दुखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपननमामिश शम्भो ।
कुछ आश्रमों में इसका पाठ मौनवेला मंत्र के रूप में होता है।
निजं निर्गुनं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेहम् .
निराकारमोंकारमूलं तुरियं गिरा ज्ञान गोतितमीशं गिरीशम् .
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोहम् .
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभिरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् .
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा लसद्भालबालेन्दु कन्ठे भुजन्गा .
चलत् कुन्डलम भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकन्ठं दयालम् .
मृगाधीशचर्माम्बरं मुन्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि .
प्रचन्डं प्रकृष्टम प्रगल्भं परेशं अखन्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् .
त्रयः शूल निर्मुलनं शुलपाणिं भजेहं भवानीपतिं भावगम्यम् .
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारि
चिदानन्द संदोहमोहापहारि प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि .
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तिहलोके परे वा नरानम् .
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूतादिवासम् .
न जानामि योगं जपं नैव पूजा नतोअहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् .
ज़रा जन्म दुखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपननमामिश शम्भो ।
कुछ आश्रमों में इसका पाठ मौनवेला मंत्र के रूप में होता है।
Saturday, 7 February 2009
आध्यात्मिक मिलन
(यह कविता श्री महेश नारायण सक्सेना जी के द्वारा लिखी गई है.)
रागिनी हूँ मैं तुम्हारे कंठ की,
गूँजती झंकार बन जो विश्व में।
कल्पना हूँ मैं तुम्हारे स्वप्न की,
हो रही साकार सारी सृष्टि में।
भोर की लाली तुम्हारी मैं बनूँ,
रात के गहरे तिमिर की चेतना।
सूर्य की हूँ चिलचिलाती धूप तो,
चाँद की मैं चमचमाती ज्योत्सना।
सुप्त हो आलोक के अगर तुम,
मैं तुम्हें साकार करती दीप में।
तुम बनो दीपक, तुम्हारी लौ बनूँ,
ताप भरती मैं तुम्हारी ज्योति में।
तुम ह्रदय तो मैं तुम्हारी भावना,
वेदना तुम, मैं तुम्हारी हूक हूँ।
तुम बनो ऋतुराज तो मैं कोकिला,
कोकिला तुम, मैं तुम्हारी कूक हूँ।
खोजती फिरती बयार बसंत की,
प्यार प्रिय का प्रकृति के श्रृंगार में।
मुखर होते ये मदिर स्वर कौन-से,
प्रणय पीड़ित भ्रमर के गुंजार में।
साज कर अभिसार आज वसुंधरा,
हार अम्बर के गले में डालती।
भाव के वह टिमटिमाते दीप ले,
मौन प्रियतम की उतारे आरती।
सोचती हूँ मैं तुम्हें खोजूँ कहाँ,
सिन्धु तल में या गगन के गर्भ में।
वन-विजन हिमश्रृंग के एकांत में,
कर्म झंझा क्रांति के सन्दर्भ में।
बेबसों की आह में खोजूँ तुम्हें,
या शहीदों की चिता की आग में।
क्या अभागिन के रुदन के राग में,
या सुहागिन की सिन्दूरी माँग में।
छंद समझो तुम मुझे निज गीत का,
लय सम्हालूँ मैं तुम्हारे गान की।
स्थूल की सरगम मिली जो सूक्ष्म से,
सम मिली सम से अमर संगीत की।
कौन तुम मेरे, तुम्हारी कौन मैं,
यह अधूरा प्रश्न ही रह जायेगा।
मैं वही जो तुम कहो तो हानि क्या,
प्रश्न ही उत्तर कभी बन जाएगा।
रागिनी हूँ मैं तुम्हारे कंठ की,
गूँजती झंकार बन जो विश्व में।
कल्पना हूँ मैं तुम्हारे स्वप्न की,
हो रही साकार सारी सृष्टि में।
भोर की लाली तुम्हारी मैं बनूँ,
रात के गहरे तिमिर की चेतना।
सूर्य की हूँ चिलचिलाती धूप तो,
चाँद की मैं चमचमाती ज्योत्सना।
सुप्त हो आलोक के अगर तुम,
मैं तुम्हें साकार करती दीप में।
तुम बनो दीपक, तुम्हारी लौ बनूँ,
ताप भरती मैं तुम्हारी ज्योति में।
तुम ह्रदय तो मैं तुम्हारी भावना,
वेदना तुम, मैं तुम्हारी हूक हूँ।
तुम बनो ऋतुराज तो मैं कोकिला,
कोकिला तुम, मैं तुम्हारी कूक हूँ।
खोजती फिरती बयार बसंत की,
प्यार प्रिय का प्रकृति के श्रृंगार में।
मुखर होते ये मदिर स्वर कौन-से,
प्रणय पीड़ित भ्रमर के गुंजार में।
साज कर अभिसार आज वसुंधरा,
हार अम्बर के गले में डालती।
भाव के वह टिमटिमाते दीप ले,
मौन प्रियतम की उतारे आरती।
सोचती हूँ मैं तुम्हें खोजूँ कहाँ,
सिन्धु तल में या गगन के गर्भ में।
वन-विजन हिमश्रृंग के एकांत में,
कर्म झंझा क्रांति के सन्दर्भ में।
बेबसों की आह में खोजूँ तुम्हें,
या शहीदों की चिता की आग में।
क्या अभागिन के रुदन के राग में,
या सुहागिन की सिन्दूरी माँग में।
छंद समझो तुम मुझे निज गीत का,
लय सम्हालूँ मैं तुम्हारे गान की।
स्थूल की सरगम मिली जो सूक्ष्म से,
सम मिली सम से अमर संगीत की।
कौन तुम मेरे, तुम्हारी कौन मैं,
यह अधूरा प्रश्न ही रह जायेगा।
मैं वही जो तुम कहो तो हानि क्या,
प्रश्न ही उत्तर कभी बन जाएगा।
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