उपर्युक्त उद्देश्यों को धारण करने वाला यह प्रस्तावित विद्यालय 15 नवम्बर, 1954 ई. को अस्तित्व में आया। जुलाई, 1953 ई. में योजना को अंगीकार करने के बाद 1954 ई. में इस विद्यालय को इतनी जल्दी शुरू कर पाने के पीछे यहाँ की पूर्व में विद्यमान भौतिक संरचनाएँ थी। भौतिक संरचना के बाद इसके शैक्षिक स्वरुप को उत्कृष्ट बनाने की बात सोची जाने लगी। किसी भी विद्यालय के अंगों में छात्र एवं शिक्षक ही प्राणवान होते हैं। स्तरीय शिक्षा (Quality Education) के सिद्धांत पर आधारित इस विद्यालय में छात्रों और शिक्षकों की गुणवत्ता पर विशेष जोर दिया गया। छात्रों का चयन मेधावी परीक्षा के द्वारा पूरे राज्य से किया गया था और गाँव-शहर या पैसे संबंधी कोई प्रावधान नही थे। आरम्भ में कुछ सीटें अखिल भारतीय स्तर पर भी भरी जाती थीं, किंतु कालांतर में कुछ कारणों से यह बंद कर दिया गया। शिक्षकों के चयन में और सावधानी बरती गयी, क्योंकि उनपर नाजुक मन को संवारने और उनमें उत्तम संस्कार भरने का गुरुतर दायित्व था। जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद की संकीर्ण मानसिकता से विद्यालय को दूर रखने के लिए अध्यापकों के लिए अखिल भारतीय स्तर पर विज्ञापन निकला गया था और प्रत्याशी भी बंगाल, दिल्ली, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, केरल, लखनऊ, इलाहबाद, पटना आदि जगहों से आए थे। प्रारम्भ में शिक्षकों की नियुक्ति बी. पी. एस. सी. या यू. पी. एस. सी. से न होकर 'कांट्रेक्ट बेसिस' पर की गई थी।
शिक्षकों का वेतनमान पटना विश्वविद्यालय और पटना महाविद्यालय के शिक्षकों के अनुरूप रखा गया। परन्तु नियुक्तियाँ पाँच पहले ही देकर की गयी। शिक्षकों के चार स्तर रखे गए थे। प्राचार्य, बिहार शिक्षा सेवा संवर्ग(I) के भी वरीय स्तर, सभी शेष शिक्षक बिहार शिक्षा संवर्ग (II) के रखे गए, जिनका 10% संवर्ग (I) में प्रोन्नत किए जाते थे। शिक्षकों के नीचे प्रशिक्षक, जिनका स्तर अपर डिवीजन क्लर्क का रखा गया। प्रवेश में उनकी प्रवीणता को शैक्षिक योग्यता से ज्यादा महत्त्व दिया गया। वस्तुतः पदों के लिए ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों को रखे जाने की जरुरत थी, जिनमें स्वप्न्दर्शिता, उद्यमशीलता, पहल करने का उत्साह और शिक्षा के क्षेत्र में अभिनव प्रयोग कर नए मार्गों के अनुसन्धान की व्यापक दृष्टि हो। प्राचार्य के लिए योग्यताओं पर विशेष जोर दिया गया था, क्योंकि प्राचार्य ही संस्थान का मुख्य प्रतिनिधि होता है।
विद्यालय के प्रथम प्राचार्य के रूप में लन्दन इंडिया ऑफिस के लाइब्रेरियन श्री चार्ल्स जेम्स नेपियर को चुना गया, जो उच्च शिक्षा प्राप्त थे। नेपियर स्वप्नदर्शी होने के साथ-साथ आदर्शों को भी यथार्थ पर लाने वाले भी थे। नेपियर ने प्राचार्य का पदभार ग्रहण करने के साथ ही पीयर्स की रूपरेखा के सार को मष्तिष्क में रखकर उनकी नींव पर विद्यालय के विशाल भवन को बनाने का काम आरम्भ किया। विद्यालय की प्रारंभिक बुनियादी सुविधाओं को एक साथ रखकर 15 नवम्बर,1954 ई. को नेतरहाट विद्यालय की स्थापना की गई। विद्यालय भवन के अभाव में नेपियर ने अपने आवास 'शैले हाउस' को ही तत्काल विद्यालय भवन मान लिया और नियत समय पर साठ बच्चों के प्रथम बैच के साथ कक्षाएं आरम्भ हो गयीं। इस प्रकार 'शैले' से ही हमारे विद्यालय का उद्भव हुआ। अंग्रेजी की कक्षाएं प्रारम्भ में श्री नेपियर स्वयं लेते थे। हिन्दी की श्री मिथिलेश कांति, संस्कृत की श्री रामदेव त्रिपाठी, विज्ञान के श्री विश्वभर दत्त पाण्डेय, ललित कला की श्री परितोष सेन और मानविकी की श्री हरिसिंह सामंत। इसके अलावे भारत वर्ष से खोज-ढूंढकर लाये गए शिक्षकों में श्री डी. सी. तिवारी और डॉ. एस. के. वर्मा के नाम उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने अपने-अपने पदों से त्यागपत्र देकर इस विद्यालय में योगदान दिया था।
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