Friday 9 January 2009

आश्रम व्यवस्था

'सहनाववतु सहनौभुनक्तु सहवीर्यंकरवावहै
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै'

इस परम्परा-प्रकृति को उद्भूत करने वाली आश्रम व्यवस्था हमारे विद्यालय की नींव है जो गुरुकुल पद्धतियों का समावेश कर शिक्षा के विशिष्ट पहलुओं को पूर्ण करती है। आश्रम व्यवस्था प्रारंभ से ही इस विद्यालय की योजना में शामिल रही है। शुरुआत में काजमी रिपोर्ट में 6 हाउस (वर्त्तमान आश्रमवर्ग) की परिकल्पना थी, जहाँ 1 house 4 आश्रमों का बना होता और इस प्रकार आश्रमों की कुल संख्या 24 होती। वहीँ कुछ मौलिक परिवर्त्तनों के साथ वर्त्तमान आश्रम व्यवस्था अस्तित्व में आई जिसमें 3 आश्रमों का 1 आश्रमवर्ग होता है। वर्त्तमान में विद्यालय में 21 आश्रम (7 आश्रमवर्ग) हैं।
आश्रमों में एक निश्चित संख्या में (लगभग 20-25) में छात्र आश्रमाध्यक्षों के निर्देशन में रहते हैं। आश्रम में रहने वाले सभी वरीय एवं कनीय छात्र आश्रमाध्यक्ष के निर्देशन में पारिवारिक माहौल के तहत रहते हैं। बंधुत्व व सामाजिक समरसता की अवधारणा का परिपोषण छात्रों के मानस पटल पर एक अमित छाप छोड़ता है। वरीय छात्र विद्यालय के सभी क्रिया-कलापों में कनीय छात्रों का मार्ग निर्देशन करते हैं, जो उनमें प्रबंधन एवं निर्देशन की उन्नत योग्यता विकसित करता है। आश्रमवर्ग ही सभी प्रतियोगिताओं की इकाई रूप होते हैं, अतः ये सहयोगात्मक एवं सामुदायिक भावना का विकास करने की प्रयोगशाला है। रिश्तों की दृढ़ता, दायित्व-बोध, भावात्मक उन्नयन आदि कई अनमोल चीजें आश्रम व्यवस्था की सामान्य चीजों यथा- स्वावलम्बन, आचार-विचार, पहल करने की क्षमता, सामाजिकता आदि चीजें तो इसी आश्रम व्यवस्था की देन हैं।
आश्रमाध्यक्ष छात्र के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए प्रेरक होते हैं। वे अपने आश्रम के अन्तेवासियों की उत्तरोत्तर प्रगति का लेखा-जोखा रखते हैं तथा इन्हे दिशा-निर्देश देते हैं। उनका कर्तव्य है कि छात्रों की रूचि, उन्मुखता का अवलोकन करें एवं उनमें विविध गतिविधियों को क्रियान्वित करने के लिए संवर्धक का कार्य करें ताकि छात्रों का समेकित विकास सम्भव हो सके।
संस्थापक योजनाकार श्री एफ. जी. पियर्स का कथन- "छात्रों में सामाजिकता, स्वावलंबन, आपसी सहयोग, दायित्व-बोध, अनुशासन आदि का विकास इस आश्रम व्यवस्था से ही सरलता से सम्भव है। यह मेरा 40 वर्षों का अनुभव कहता है। शिक्षकों के आश्रम में बच्चों के साथ रहने पर उनके अन्दर स्वस्थ पारिवारिक समझ विकसित होगी तथा उनका सुसंस्कृत विकास होगा।" हमारे विद्यालय की आश्रम व्यवस्था के मूल में है।
आश्रमाध्यक्ष की पत्नी छात्रों की माता का दायित्व निभाती हैं.छात्र उन्हें 'माताजी' कह कर संबोधित करते हैं। उनका यह कर्त्तव्य है कि वे आश्रम में एक पारिवारिक माहौल बनाएँ और उसे कायम रखें। आश्रममाता वात्सल्य रस की प्रतिमूर्त्ति होती हैं। वे छात्रों के भावनात्मक पक्ष को परिपुष्ट करती हैं और अपनी स्नेहधारा से उनके अन्दर की रिक्तता, शुष्कता को भरती हैं। छात्रों की छोटी-छोटी आवश्यकताओं के ऊपर ध्यान देना उन्हीं का कर्त्तव्य है। छात्रों के भोजनादि की व्यवस्था व देखरेख वे पाकशाला प्रभारी के रूप में करती हैं। आश्रमाध्यक्षों की गैर-मौजूदगी में आश्रममाता उनका कार्यभार लेती हैं।आश्रमाध्यक्ष के पूरे परिवार के रहने की व्यवस्था छात्रों के साथ उसी आश्रम में होती है, जिनका उन्हें कार्यभार मिला होता है।
इस प्रकार आश्रमाध्यक्ष, आश्रममाता एवं छात्र आश्रम के स्तम्भ हैं। यहाँ की आश्रमव्यवस्था यहाँ के छात्रों की गुणात्मक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग है।

आश्रमों के नाम इस प्रकार हैं :
क. प्रथम आश्रमवर्ग :
1. शान्ति आश्रम 2. अरुण आश्रम 3. गौतम आश्रम
ख. द्वितीय आश्रमवर्ग :
4. आनंद आश्रम 5. प्रेम आश्रम 6. अर्जुन आश्रम
ग. तृतीय आश्रमवर्ग :
7. अशोक आश्रम 8. साकेत आश्रम 9. किशोर आश्रम
घ. चतुर्थ आश्रमवर्ग :
10. नालंदा आश्रम 11. विक्रम आश्रम 12. तक्षशिला आश्रम
च. पंचम आश्रमवर्ग :
13. रमन आश्रम 14. बोस आश्रम 15. भाभा आश्रम
छ. षष्ठ आश्रमवर्ग :
16.अरविन्द आश्रम 17.प्रदीप आश्रम 18.रामकृष्ण आश्रम
ज. सप्तम आश्रमवर्ग :
19. कपिल आश्रम 20. कणाद आश्रम 21. कण्व आश्रम

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